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सत्य, अपशब्द, सम्प्रेषण व श्री कृष्ण।

त्यअपशब्दसम्प्रेषण  श्री कृष्ण।

विवेक शर्मा


 

ये सत्य है कि पक्षी पक्षी ही की भाषा समझता है और जानवर जानवर ही की। यदि पक्षी को गीता पाढाओगे तो वह मात्र अपनी भाषा में ही कुछ कहेगा,

हो सकता है वह शब्दोच्चारण को पकड़ वैसा का वैसा ही शब्द करे परन्तु वह शब्द के

मार्मिक भाव को अभिव्यक्त नहीं कर सकता क्योंकि वह उसकी समझ के बाहर है। अतः आपको उसी की भाषा में बात करनी होगी, चाहे वह दूसरों को बुरी लगे या उनकी समझ के परे हो।

मूर्ख साहित्यिक भाषा नहीं वरन् उसी की भाषा में समझने को सक्षम है। क्या आप बिना थाप के ढोल बजा सकते हो? क्या आप बिना फूंक के बाँसुरी बजा सकते हो?

क्या आप थाप से बाँसुरी बजा सकते हो? क्या आप फूंक से ढोल बजा सकते हो?

यदि नहीं तो आप बात का मर्म समझ गये हैं!

जब भगवान कृष्ण ने अर्जुन को क्लीव (नपुंसक) कहा तो वह बुरा नहीं माना वरन् उसके भाव को समझा कि उसका युद्धभूमि में

व्यवहार नपुंसक की ही भाँति है और एक क्षत्रीय के लिये ये शोभनीय नहीं है।

पर इसके बाद उन्होंने उसे स्वयं की संज्ञा दीवृष्णीनां वासुदेवोस्मि पाण्डवानां धनंजय:

इसका आशय है अत्यन्त बलशालियों प्रभावशालियों में मैं कृष्ण हूं और पाण्डवों में मैं अर्जुन अतः जब श्री कृष्ण ने अर्जुन को स्वयं हूं कहा तो नपुंसक कह कर वह ताड़ना निहित कृष्णत्व को जगाने की थी और है

जब भगवान रामकृष्ण ने विवेकानन्द के निर्विकल्प समाधि अनुभव के पश्चात उसी स्थिति में रहने की इच्छा कोनीच बुद्धि आचरण कहकर

उसे उसके आगमन के उद्देश्य के लिये ताड़ना देना बाद मेंनरेन्द्र की देह तो मेरी ससुराल है

कहना सिद्ध करता है कि जिस समय जो व्यक्ति जो भाषा समझता है वही बोलना अनिवार्य है परन्तु वही बोलते रहना कुव्यवहार है। ये सत्य है कि भाषा अनुद्वेगकरी , मीठी सत्य प्रेरित होनी चाहिये। परन्तु हर स्थिति में सकारात्मक ही रहे ये अभिव्यक्ति के साथ उसी प्रकार अन्याय होगा जिस प्रकार सज्जनों के मध्य अवांच्छित शब्दों का प्रयोग।

श्री कृष्ण अठ्ठारहवें प्रवचन में अर्जुन को कहते हैं, “अथ चेत्त्वमअहंकारान्न श्रोष्यसि विनंक्ष्यसि।।

यदि तू अहंकार के वशीभूत होकर मैं जो कह रहा हूँ वह नहीं सुनेगा, तो तेरा विनाश हो जायेगा।

ये तो नकारात्मक वाक्य है। ये वाक्य तो उद्वेगपूर्ण प्रतीत होता है। ऐसा ही मुख्यतः व्यक्ति सोचेंगे।

परन्तु यह नकारात्मक प्रतीत होने वाला वाक्य सत्य सिद्धान्त का सम्प्रेषण मात्र है। यदि आप अपने अन्दर की वाणी को नहीं सुनोगे, या सच्चे हितकारी वाक्य को नहीं सुनोगे तो निश्चित रूप से आपका विनाश अटलनीय है। यदि कोई आपसे कहता है उस दिशा में मत जाना, नहीं तो तुम कूएँ में गिर जाओगे, वहाँ से में जा चुका हूँ बहुत ही दुर्गम मार्ग है। मैं किसी प्रकार संयोग से बचा हूँ परन्तु ऐसा संयोग तुम्हारे साथ भी हो ऐसा निश्चित नहीं। तो क्या आप उस मार्ग से जायेंगे?

क्या आप ये सोचेंगे कि यह व्यक्ति मात्र नकारात्मक बात कर रहा है। यदि आप उस मार्ग से गये तो क्या आप उस हितकारी वाक्य की अवहेलना नहीं करेंगे?

यदि अवहेलना करेंगे तो क्या कूप में गिरने की सम्भावना  को आमन्त्रण नहीं देंगे?

अतः भाषा व आचरण समय, व्यक्ति व स्थान के अनुसार होना गीता संगत है।
 

 

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