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बिना उनके आप एक चींटी का भी सामना नहीं कर सकते!

ईश्वर और आप या ईश्वर ही आप,

 जानें कृष्ण के मुख से!

विवेक शर्मा


यदि आप ईश्वर के स्वरूप के बारे में श्री कृष्ण के विचार जानना चाहते हैं तो उनके आम व्यक्ति को समझाने के प्रयास को देखकर आप आश्चर्य में पड़ जायेंगे, सराहेंगे उसके पीछे की ज्ञान शृंखला को देख कर हतप्रभ रह जायेंगे।वो कहते ह--

सर्वतःपाणिपादं तत्सर्वतोक्षिशिरोमुखम्। सर्वतःश्रुतिमल्लोके सर्वमावृत्य तिष्ठति।।

वह सर्वत्र हाथ-पांव, सर्वत्र आँख सिर, मुख कान वाला है क्योंकि वह सब को घेर कर सब में छिपा हुआ स्थित है ( सर्वमावृत्य तिष्ठति ) आवृत्य के दोनों आशय हैंघेर कर में छिपकर रहना या होना।

यदि आप इसका बिम्ब बनायेंगे तो कतिपय डर ही जायेंगे। पर यह एक प्रयास है श्री कृष्ण का आम जन को प्रभु के चारों ओर स्वयं में होने के  आशय को समझाने का। कि जो कुछ भी तुम अपने चारों ओर देख रहे हो, से व्यवहार कर रहे हो, जो कुछ भी अच्छा या बुरा देख रहे हो, वह सब ईश्वर ही है, वह जो अनेक व्यक्तियों, जीवों के हाथ-पांव, सिर-मुख, कान इत्यादि के रूप में देख-समझ रहे हो वह सब ईश्वर के ही हैं, क्योंकि वह इन सब में सब को घेर कर बैठा है। इसके पीछे की ज्ञान शृंखला क्या है?

यदि आप ईश्वर लाभ चाहते हैं तो उनके व्यक्त अव्यक्त दोनों रुपों को समझना प्रेम करना होगा। यदि आप श्री कृष्ण द्वारा दिये इस बिम्ब को ध्यान में रखेंगे तो पायेंगे कि आप किसी के प्रति वैमनस्य या अति आसक्ति का भाव नहीं रख सकते, क्योंकि ये सब ईश्वर के ही हाथ-पांव इत्यादि हैं। आप सभी को अपना समझोगे यदि आप ईश्वर को सच्चा प्रेम करते हैं तो। परन्तु प्रश्न उठता है कि उनके दुर्योधन स्वरूप से कैसे निबटेंगे? उत्तर एकदम स्पष्ट हैजैसे अर्जुन ने युद्ध किया थाअपने अन्दर बाहर स्थित ईश्वर को सारथि बना कर। बिना उनके आप एक चींटी का भी सामना नहीं कर सकते क्योंकि वह ईश्वर ही है  और उतनी ही शक्तिशाली जितना कि ईश्वर और बिना ईश्वर के साथ के आप उसके वैमनस्य का सामना नहीं कर सकते। आप उससे तब तक हारते रहोगे जब तक उसमें स्थित ईश्वर के प्रति नत नहीं हो जाते। आप उसे मार सकते हो पर हरा नहीं सकते। आप तब समझ जायेंगे कि इस च्यूंटी के द्वारा वह आप को कुछ कुछ समझा और सिखा रहे हैं। तब युद्ध करते समय आपके मन में उसमें स्थित ईश्वर के प्रति प्रेम और उसके द्वारा वैमनस्यता मात्र एक खेल समझ आयेगा और आपविगत ज्वरहोकर  अपने अभिनय अंश का सचेत संपादन करेंगे। दुर्योधन तो अपने प्रयोजन आपकी इस समझ के बाद स्वयं ही ईश्वर द्वारा अपने में समेट लिया जायेगा (तस्मात्त्वमुत्तिष्ट यशो लभस्व, जित्त्वा शत्रून्भुन्क्ष्व राज्यं समृद्धम्।

मयैवैते निहताः पूर्वमेव निमित्तमात्रं भव सव्यसाचिन्।।

मैंने पहले ही इन सब को मार डाला है, अर्जुन बस निमित्तमात्र हो जाअपना अभिनय अंश पूरा कर) अब इसे श्री कृष्ण की विजय कहोगे कि अपनीअर्जुन की? श्री कृष्ण की जो आपमें भी हैं। इसलिये संजय कहते हैंयत्र योगेश्वरः कृष्णो यत्र पार्थोतत्र श्री विजयो भूतिःविजय श्री वहीं होती है जहां अर्जुन योगेश्वर कृष्ण होते हैं। व्यवहारिक आध्यात्म यही है।

ईश्वर हम

यदि गहराई से देखा जाए तो हम ईश्वर के अंश हैं जैसे कि दूसरे चर अचर सत्ताधारी। स्मृति अहंकार ही हमें ईश्वर से दूर रखता है। क्योंकि यही मुक्त चेतना को स्मृति की सीमाओं में आबद्ध कर हमें सीमित भाव में निबद्ध कर अपने ऐश्वर्य से दूर रखता हैईश्वरीय भाव से।

जो पूर्ण है अचर में  और क्षूद्रतम् अंश में भी पूर्ण होगा अन्यथा वह अपूर्ण ही कहा जायेगा। अतः ईश्वर का अस्तित्त्व सम्पूर्णता की ही अभिव्यक्ति है वह समय, काल, स्थान स्थिति में नित्य, अपरिवर्तनीय अखण्ड है।

श्री कृष्ण कहते हैं

परमात्मेति चाप्युक्त्तो देहेस्मिन्पुरुषः परः।

आशय हैइस देह में स्थित ये पुरुष वास्तव में परमात्मा ही है जो प्रकृति के तीन गुणों से परे अप्रभावित इसको चलाने वाला है। अतः यह देहस्थ आत्मा ही परमात्मा हैयह देहस्थ ऊर्जा ही परम् बुद्धिमान ऊर्जा है।

वे कहते हैंममैवांशो जीवलोके जीवभूतः सनातनः। यह जीव मेरा ही नित्य अंश है। यहाँ अंश शब्द की व्याख्याविभाजित भागकतिपय नहीं है। यदि ऐसा समझेंगे तो श्री कृष्ण के कथन अविभक्तिम् भूतेषु विभक्तिमिव स्थितम् का उल्लंघन होगा। अतः अंश कोअविभाजित भागसमझना श्री कृष्ण की अभिव्यक्ति संगत होगा।अविभाजित भागका आशयनिरन्तरताशब्द से अच्छे से सम्प्रेषित होता है। निरन्तरता का आशय है बिना अन्तर के या  बिना विभेद के, अतः वह ही हैं। हम कह सकते हैं कि यहाँ श्री कृष्ण कह रहे हैं कि यह जीव मैं ही हूँ। जो कि मनःषष्ठानीन्द्रियाणि प्रकृतिस्थानि कर्षति, मन इन्द्रियों को प्रकृति से खींच कर उसमें रहता है। अतः हम सब मन इन्द्रियों के सीमित आवृत्त में रहने वाली बुद्धिमान् ऊर्जा हैं। श्री कृष्ण कहते हैं

यथा प्रकाशयत्येकः कृत्स्नं लोकमिमं रविः।क्षेत्रं क्षेत्री तथा कृत्स्नं प्रकाशयति भारत।।

इस आवरण के हटते ही बादल के हटने से सूर्य के प्रकाश जैसे बुद्धिमान ऊर्जा अपनी सहज अभिव्यक्ति करने लगती है। समस्त क्षेत्र को प्रकाशित कर देती है और निरन्तर प्रसार को प्राप्त होती है।

वह देह में अवस्थित तो रहती है पर उसमें आबद्ध नहीं

यथा सर्वगतं सोक्ष्म्यादाकाश नोपलिप्यते। सर्वत्रावस्थितो देहे तथात्मा नोपलिप्यते।।

श्री कृष्ण कहते हैं जैसे आकाश सर्वत्र निर्बाधित हो रहता है वैसे ही आवरण के हटते ही जीव देह में लिप्त नहीं होता। वह आर-पार रहता है।

ऐसे दुर्लभ अनावृत्त का संसर्ग साथ स्वतः सूर्य की भाँति आलोकित करने वाला होता है। ऐसे व्यक्ति का संग प्राप्त करना चाहिये। क्योंकि उसका होना प्रकृति की सबसे बड़ी कृपा है।

 

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