जब श्री कृष्ण ने कहा “वृष्णीनां वासुदेवोस्मि पाण्डवानां धनंजय:” तो हम क्या समझे? कि वृष्णि एक वंश मात्र है।और कृष्ण मात्र अपने वंश की बात कर रहे है कि वह वृष्णियों में वासुदेव हैं।
पर वह धनन्जय को क्यों स्वयं हूँ कह रहे हैं? वो तो पाण्डव है?
गुणों से संस्कार व संस्कारों से वंश बनते है। वंश का मूलार्थ है जैसे बांस में एक के पश्चात एक दण्ड बनता है उसी प्रकार, एक के बाद एक विशिष्ट संस्कार क्रमबद्ध होकर
गुण का निर्माण करते हैं और इस प्रकार वंश बनता है। इस सम्पूर्ण प्रक्रिया में गुण मुख्य है।
वृष्णि शब्द को उसके वैज्ञानिक मूल तक अभी तक नहीं समझा गया है। इसीलिये “वृष्णीनां वासुदेवोस्मि पाण्डवानां धनंजय:” श्लोक का आशय पूर्ण रूप से आत्मसात् नहीं हो पाया है। कोई बात नहीं अब हो रहा है।
वृष्णि एक सिद्धान्त
इसका सैद्धान्तिक अर्थ है वृषणधारी (man with balls),
अदम्य रचनात्मक व क्रियात्मक शक्ति से परिपूर्ण, महावीर अलंघ्य प्रभावशाली व अनन्त पौरुषवान। वह पुरुष जिसकी रसग्रन्थियां सतत् रूप से रसोर्जा का रुधिर प्रवाह में वर्षण (वृष्) कर रहीं हैं। योग विज्ञान के अनुसार, वृष्णि वो हैं जो शीर्शस्थ सहस्त्रार से वर्षित ऊर्जामृत में सतत् स्नान कर रहे हैं। वे जो बुद्धिमान ऊर्जा के सीधे अंगिकारकर्ता हैं, और जिनका सम्पूर्ण देह-चित्त संस्थान इस ऊर्जा से आवेशित है, वृष्णि कहलाये जाते हैं। जिनके वृषण ओजस् व उसके रचनात्मक व प्रसारकारी ऊर्जा का वर्षण करने हेतु रसोर्जा से भरे हुये हैं, वे वृष्णि हैं। जिनका देह व मन बुद्धिमान ऊर्जा के अलंघ्य, अदम्य, मनोहारी व उत्थानकारी प्रभाव के वाहक हैं, वे वृष्णि हैं। कृष्ण कहते हैं ऐसे वृष्णियों में मैं वासुदेव हूँ । वसुदेव का पुत्र कृष्ण।
‘वसुदेव’ का आशय
कृष्ण कौन? वह सिद्धान्त जो चहु ओर व्याप्त है एवं सर्वत्र प्रभावी है। अन्दर, बाहर, ऊपर, नीचे, सब दिशाओं में। किस प्रकार? जैसे ८ वसु हैं—अस्तित्व के सिद्धान्त। पाँच तत्व एवं चन्द्रमा, सूर्य व ध्रुव। सूर्य पर्याय है बुद्धि का, चन्द्र मन का व ध्रुव अहंकार का। श्री कृष्ण ने जो “मे भिन्ना प्रकृति: अष्टधा” कहा है वह वासुदेव शब्द की ही व्याख्या है। ध्रुव अहंकार का पर्याय कैसे? सनातन विज्ञान के अनुसार जो भी परिवर्तनहीन, दृढ़ व कीली के समान है वह ध्रुव है। जैसे पहिया व उसकी धुरी जिस पर वह घूमता है। धुर् ही किसी वाहन का भार लेने वाला दृढ़ केन्द्रीय दण्ड है। साधारण भाषा में समझें तो ध्रुव एक वृत्त का केन्द्र है जिसपर समस्त वृत्त निर्भर है। देह यदि वृत्त है तो अहंकार उसका केन्द्र है। ‘मैं कर्ता हूँ’ इसी केन्द्र की ध्रुवता है। इन सब वसुओं से बुद्धिमान ऊर्जा का सतत् वृष्टिमय प्रेरण, प्रसार व विकिरण हो रहा है, समझने के लिये, जैसे सूर्य से प्रभा व चन्द्र से आभा। इनका प्रभाव अलंघनीय है व अनिवार्य भी— इनके बिना कुछ भी संभव नहीं।
वृष्णि गुण क्या है
कृष्ण कहते हैं वह पांडवों में अर्जुन हैं तो वह कह रहे हैं जिसमें वृष्णि गुण है वह अर्जुन है, और वह वे स्वयं हैं।
मुनीनामप्यहं व्यास: कवीनामुशना कविः।। मुनियों में मैं व्यास हूँ, और कवियों में मैं शुक्राचार्य। व्यास तप के वृष्णि हैं, जिन्होंने इस ऊर्जा से वेदों को व्यवस्थित किया और निहित ज्ञान को सहज क्रियान्वयन हेतु पुराणों में आबद्ध किया। इसी प्रकार असुरों के गुरु शुक्राचार्य वृष्णि गुणों से परिपूर्ण हैं। उशना कवि वीर रस व रसोत्पादक ज्ञान को कविता में आबद्ध कर ऊर्जा का प्रसार करते हैं। ये सब रचनात्मक ऊर्जा से ओतप्रोत हैं, अतः भगवान ने इन्हें स्वयं हूँ कहा है। जहां भी इस शक्ति व ऊर्जा की अभिव्यक्ति है वहीं श्री कृष्ण हैं।
और जहां श्री कृष्ण हैं वहीं जय है । जय का आशय अक्षमताओं, विषमताओं व अशुभ पर विजय है।
श्री कृष्ण स्वयं कहते हैं—यद्यदविभूतिमसत्त्वम श्रीमतदूर्जितमेव वा।
तत्तदेवावगच्छ त्वं ममतेजोंशसम्भवम्।।
य़“जो जो ऐश्वर्ययुक्त, कान्तियुक्त व शक्तियुक्त वस्तु है उस उसको तू मेरे तेज की आंशिक अभिव्यक्ति जान।”
यहाँ भगवान ने तीन उनकी शक्ति की अभिव्यक्ति को जानने के सिद्धान्त दिये हैं। (१) ऐश्वर्य (२) कान्ति (३) शक्ति ऊर्जा। क्या यह किसी वस्तु में हैं तो वह बुद्धिमान ऊर्जा का अंश ही समझा जाना चाहिये। यही वृष्णि गुण है। जिसका विजय ही पर्याय है।
संजय इसी गुण को भगवत् गीता के अन्तिम श्लोक के रूप में व्याख्यित करते हैं।
यत्र योगेश्वरः कृष्णो यत्र पार्थो धनुर्धरः।
तत्र श्रीर्विजयो भूतिर्ध्रुवा नीतिर्मतिर्मम।।
“जहां कृष्ण हैं और जहां इस ऊर्जा के अंगिकारकर्ता व अभिव्यक्तकर्ता (अर्जुन) हैं,
वहीं श्री विजय विभुति अचल नीति है ऐसा मेरा मत है।”
यही वृष्णि गुण है। जिसका विजय ही पर्याय है।